भूमिका
भारतीय लोकतंत्र की नींव विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन पर टिकी है। यह संतुलन संविधान की आत्मा है, जो तीनों स्तंभों को परस्पर सहयोग और नियंत्रण के साथ कार्य करने का दायित्व देता है। हाल के दशकों में, सर्वोच्च न्यायालय के कुछ ऐतिहासिक फैसलों ने यह सवाल उठाया है कि क्या वह संसद से ऊपर हो गया है, या वह केवल संविधान की रक्षा कर रहा है। इसे 'सुपर संसद' कहने की बहस तब और तेज होती है, जब न्यायपालिका संसद के बनाए कानूनों को रद्द करती है या सरकार की नीतियों में हस्तक्षेप करती है। यह लेख इस प्रश्न का विश्लेषण करता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय वास्तव में 'सुपर संसद' है, या वह संवैधानिक सीमाओं में रहकर लोकतंत्र की रक्षा करता है।
न्यायपालिका को 'सुपर संसद' क्यों कहा जाता है?
सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ और भूमिका इसे संसद से अलग और कुछ मामलों में उससे ऊपर की स्थिति प्रदान करती हैं। निम्नलिखित बिंदु इसे स्पष्ट करते हैं:
1. संविधान की सर्वोच्च व्याख्याता:
भारतीय संविधान की व्याख्या का अंतिम अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है। अनुच्छेद 141 के तहत इसके निर्णय देश भर में बाध्यकारी हैं। इसका अर्थ है कि संसद द्वारा बनाया गया कोई भी कानून, यदि संविधान के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है। यह शक्ति न्यायपालिका को संसद के ऊपर एक निगरानी की भूमिका देती है। उदाहरण के लिए, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में न्यायालय ने 'मूल ढांचा सिद्धांत' (Basic Structure Doctrine) प्रतिपादित किया, जिसके तहत संसद संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती। इसने संसद की संशोधन शक्ति पर एक स्पष्ट सीमा तय की।
2. न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review):
न्यायपालिका को संसद के कानूनों और संशोधनों की संवैधानिकता की जांच करने का अधिकार है। यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों या संविधान के अन्य प्रावधानों का उल्लंघन करता है, तो उसे रद्द किया जा सकता है। कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण:
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार (1980): संसद द्वारा किए गए संशोधन को रद्द करते हुए न्यायालय ने मौलिक अधिकारों की रक्षा की।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): न्यायालय ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती, हालाँकि यह बाद में 24वें संशोधन द्वारा संशोधित हुआ।
- इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975): संसद द्वारा किया गया एक संशोधन, जो प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक समीक्षा से बाहर करता था, रद्द कर दिया गया।
- चुनावी बॉन्ड मामला (2024): सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित किया, क्योंकि यह सूचना के अधिकार (RTI) और पारदर्शिता का उल्लंघन करती थी।
3. मौलिक अधिकारों की रक्षा:
अनुच्छेद 32 और 226 के तहत, नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में सीधे सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय जा सकते हैं। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को 'संविधान का हृदय और आत्मा' कहा। यह शक्ति न्यायपालिका को संसद और सरकार के कार्यों की निगरानी करने का अधिकार देती है। उदाहरण:
- शायरा बानो बनाम भारत सरकार (2017): तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा।
- नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत सरकार (2018): धारा 377 को रद्द कर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाया।
- सबरीमाला मंदिर मामला (2018): मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को असंवैधानिक घोषित कर लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया।
4. जनहित याचिका (PIL):
1980 के दशक से, जनहित याचिकाओं ने न्यायपालिका को सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर दिया। कोई भी नागरिक सामाजिक हित के लिए याचिका दायर कर सकता है, जिसके परिणामस्वरूप कई क्षेत्रों में सुधार हुए:
- पर्यावरण संरक्षण: दीपावली पर पटाखों पर प्रतिबंध, औद्योगिक अपशिष्ट प्रबंधन के दिशानिर्देश।
- बाल श्रम उन्मूलन: खतरनाक उद्योगों में बाल श्रम पर प्रतिबंध।
- पुलिस सुधार: पुलिस भर्ती, स्थानांतरण और स्वतंत्रता के लिए दिशानिर्देश।
- जेल सुधार: कैदियों के अधिकारों और जेलों की स्थिति में सुधार।
- भ्रष्टाचार विरोधी कदम: भ्रष्टाचार के मामलों में स्वतः संज्ञान और निष्पक्ष जांच के आदेश।
5. न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism):
जब न्यायपालिका संविधान की रक्षा के लिए सरकार या संसद के कार्यों में हस्तक्षेप करती है, तो इसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं। इसका उद्देश्य मौलिक अधिकारों की रक्षा, प्रशासन की निष्क्रियता को दूर करना और कानूनों का सही कार्यान्वयन सुनिश्चित करना है। उदाहरण:
- पटाखों पर प्रतिबंध: वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए दीपावली पर पटाखों की बिक्री और उपयोग पर रोक।
- सबरीमाला मंदिर: महिलाओं को समान धार्मिक अधिकार देने का फैसला।
- धारा 377 का निरस्तीकरण: समलैंगिक समुदाय के अधिकारों की रक्षा।
6. अनुच्छेद 142: पूर्ण न्याय की शक्ति:
अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को 'पूर्ण न्याय' के लिए आवश्यक आदेश पारित करने की शक्ति देता है। यह शक्ति इसे कानून की सीमाओं से परे जाकर भी न्याय प्रदान करने में सक्षम बनाती है। उदाहरण:
- राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामला (2019): विवादित भूमि रामलला को दी गई और मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक भूमि आवंटित की गई।
- सहारा-SEBI मामला: निवेशकों को धन वापसी के लिए आदेश।
- सांसद रिश्वत प्रतिरक्षा समाप्ति (2024): सांसदों को रिश्वत के लिए प्रतिरक्षा से वंचित किया गया।
हाल की घटनाएँ (2024-2025)
1. चुनावी बॉन्ड योजना (फरवरी 2024):
सर्वोच्च न्यायालय ने इस योजना को असंवैधानिक घोषित किया, क्योंकि यह पारदर्शिता और सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती थी। इसने राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता को बढ़ावा दिया और काले धन के उपयोग पर रोक लगाई।
2. सांसदों/विधायकों की रिश्वतखोरी पर प्रतिरक्षा समाप्त (मार्च 2024):
1998 के फैसले को पलटते हुए, न्यायालय ने कहा कि सांसदों को संसद में रिश्वत के लिए कोई प्रतिरक्षा नहीं मिलेगी। यह भ्रष्टाचार के खिलाफ और संसद की गरिमा के लिए बड़ा कदम था।
3. तमिलनाडु बनाम राज्यपाल (अप्रैल 2025):
न्यायालय ने राज्यपाल को निर्वाचित सरकार की सलाह मानने और विधानसभा द्वारा पुनः पारित विधेयकों को रोकने का अधिकार न होने का आदेश दिया। यह संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक जनादेश की रक्षा का उदाहरण है।
आलोचनाएँ और चिंताएँ
1. न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach):
जब न्यायपालिका नीति-निर्माण या प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप करती है, तो इसे अतिक्रमण माना जाता है। उदाहरण के लिए, प्रशासनिक नियुक्तियों या नीतियों पर निर्देश देना।
2. लोकतंत्र में असंतुलन:
बार-बार संसद के कानूनों को रद्द करने से तीनों स्तंभों के बीच संतुलन बिगड़ सकता है। यह संसद की संप्रभुता पर सवाल उठाता है।
3. अनुच्छेद 142 का दुरुपयोग:
इसकी अस्पष्ट सीमाओं के कारण अत्यधिक शक्ति का खतरा है, जो न्यायपालिका को अधिनायकवादी बना सकता है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय 'सुपर संसद' नहीं, बल्कि संविधान का रक्षक है। यह संसद से ऊपर नहीं, पर संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करता है। इसकी शक्तियाँ, जैसे न्यायिक पुनरावलोकन, जनहित याचिका, और अनुच्छेद 142, इसे मौलिक अधिकारों और लोकतंत्र की रक्षा के लिए सशक्त बनाती हैं। हालाँकि, इसका अति-हस्तक्षेप लोकतंत्र के संतुलन को प्रभावित कर सकता है। इसलिए, न्यायपालिका को अपनी शक्ति का विवेकपूर्ण और संतुलित उपयोग करना चाहिए ताकि लोकतंत्र स्वस्थ और स्थायी रहे।